पुत्री की व्यथा
तुम ब्रह्मा हो,
तुम मेरे भी पिता हो
फिर भी मै अनाथ हू!
मै क्यौ अनाथ हू ?
मेरे प्रश्न का उत्तर है तुम्हारे पास ?
ब्रह्मा ! तू पिता है,तू सृष्टि का निर्माता है,
मैने सुना है- समस्त सृष्टि तूने रची है।
हे सर्वशक्तिमान!
क्या तू भी मानव की तरह अनचाहे स्वप्न देखने
के लिये विवश है ?
यदि ऐसा है –
तो तू बता- तू किस बात का ब्रह्मा है?
कैसे तू परमपिता है?
कैसे तू सर्वशक्तिमान है?
और तुझे अपनी शक्ति का इतना अभिमान है?
मेरे जन्मदाता!
जब कोख मे ही मेरी हत्या होती है
जब मुझ पर अत्याचार होता है
जब मेरा शोषण होता है
तो भी तू ठाठ से पड़ा कही सोता है?
और तुम भी मेरे पिता हो
क्योकि इस निर्मम संसार मे
तुम मेरे जन्म दाता हो
एक कोमल कली की तरह
क्या खिली नही थी मै तुम्हारे आन्गन मे
मैने तुम्हारे पितृत्व का गौरव बढाया था
अपनी मधुर किलकारियो से
तुम्हारे कानो मे रस भरा था
मेरा मन—-
तुम्हारे प्रति प्रेम और विश्वास का अगाध समुद्र था
पर तुम्हारी सामाजिक विवशता ने
कली को खिलने नही दिया
किलकारियो को गूजने नही दिया
प्रेम और विश्वास के इस समुद्र को खारा बना दिया।
पर इसमे तुम्हारा क्या दोष ?
खारा होना समुद्र की नियति है।
मै नदी क्यो नही थी
जो जग को शीतलता तो प्ररदान करती है
किन्तु बहा ले जाती है उस सबको
जो उसके मार्ग मे आता है
किन्तु खारे समुद्र मे भी ज्वार आते है
जो नदी की बाढ से ज्यादा भयावह होते है