पुण्यपताका ले के
क्या कहीं पुष्प खिला पुण्यपताका ले के।
कौन है आज मिला पुण्यपताका ले के।।
आसुरी वृत्ति बढ़ी भोग बढ़ा है जैसे,
गिर गया मित्र! क़िला पुण्यपताका ले के।।
स्वार्थ है लोभ बढ़ा, और बढ़ा मत्सर भी,
प्रेम का भाव छिला पुण्यपताका ले के।।
दीन का एक सहारा न बना है कोई,
खो गयी शुभ्र इला पुण्यपताका ले के।।
‘आशु’ को मोल लिया, तोल लिया कंचन ने,
धर्म का चित्त हिला पुण्यपताका ले के।।
रचनाकार
डॉ आशुतोष वाजपेयी
ज्योतिषाचार्य
लखनऊ