पीर हरे जो जन-जन की
पीर हरे जो जन जन की, वे गीत धरा पर गांऊं
मरी हुई है आज चेतना, गीतों से इसे जगाऊं
पीर हरे जो जन जन की, बे गीत धरा पर गांऊं
गौतम गांधी की धरती पर, हिंसा ने हैं पांव पसारे
छाया है आतंक का साया, कैसे इसे मिटाऊं
पीर हरे जो जन जन की, वे गीत धरा पर गांऊं
दर्द हुई कश्मीर की घाटी, दग्ध मेरा पंजाब हुआ
धू-धू कर आसाम जला, दिल्ली मुंबई में उठा धुआं
दुनिया पर हैं आतंक के साए, कैंसे दर्द मिटाऊं
पीर हरे जो जन जन की, वे गीत धरा पर गांऊं
नहीं धर्म का भेद रहे, न जाति का उन्माद रहे
मानवता की कड़ियां जोड़े, गीत वही दोहराऊं
पीर हरे जो जन जन की, वे गीत धरा पर गांऊं