*पीड़ा ही संसार की सर्वश्रेष्ठ शिक्षक है*
पीड़ा ही संसार की सर्वश्रेष्ठ शिक्षक है
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जाके पाँव न फटी बिवाई,
वो क्या जाने पीर पराई
कहावत पुरानी है, लेकिन संदेश शाश्वत है । जब तक व्यक्ति को स्वयं पीड़ा का अनुभव नहीं होता, वह न तो दूसरों के कष्ट को समझ पाता है और न ही संसार की कठोर वास्तविकताओं से वह परिचित हो पाता है। एक के बाद एक ठोकर व्यक्ति को लगती है और उसका अंतर्मन सजग होता रहता है । प्रत्येक ठोकर उसे सबक सिखाती है। उसे मालूम पड़ता है कि संसार सुख की सेज नहीं है। यह केवल आरामदायक बिछोना नहीं है। यहॉं पर सिर्फ सुखों का उपभोग ही विधाता ने हमारे लिए सुनिश्चित नहीं किया है बल्कि जीवन की कुछ कठोर वास्तविकताऍं भी होती हैं; जिनका परिचय हमें तभी मिल सकता है जब हम अपने जीवन में पीड़ा से गुजरें । यह पीड़ा ही आह्लाद की जननी होती है। इसी से एक हॅंसता-खिलखिलाता हुआ नया सूर्य उदय होता है। वह जीवन ही क्या जिसमें संध्या न हुई हो। जो रात्रि से होकर न गुजरा हो। बिना रात के ॲंधेरे से गुजरे हुए आज तक कोई सूरज नहीं उगा है ।
अंधकार का अर्थ यह नहीं है कि प्रकृति में सब कुछ समाप्त हो गया। हम निराश हो जाऍं। जरा से कष्ट से हम अपना हौसला और हिम्मत खो दें। यह तो मनुष्य की अत्यधिक दुर्बल स्थिति कहलाएगी। धैर्यवान व्यक्ति दर्द को जीवन का एक मोड़ समझकर सहते हैं। उसका अनुभव करते हैं। वह दर्द में भी जीवन के पाठ पढ़ते हैं और उसके बाद वह संसार को यह शिक्षा देने में समर्थ हो पाते हैं कि वास्तविक जीवन को उन्होंने पीड़ा की स्थिति में ही अनुभव किया था ।
जरा सोचिए! अगर भगवान राम को वनवास न मिला होता तो क्या वह सचमुच विश्व के आदर्श मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम बन पाते ? क्या वह सुदूर क्षेत्र के वनवासियों को एक सूत्र में जोड़कर उनकी सहायता से समुद्र पर पुल बांधने की सोच पाते ? क्या रावण को हरा पाना संभव हो पाता यदि सीता जी का अपहरण न किया गया होता ? भगवान राम ने हर आपदा को अवसर में बदल दिया और हर संकट के बाद उनका व्यक्तित्व चौगुना निखरता चला गया। महापुरुष सुख और दुख दोनों परिस्थितियों में एक समान रहते हैं । भगवान राम का उदाहरण सामने है। उनके मुखमंडल की मुस्कान जैसी राज्याभिषेक का समाचार सुनकर थी, वैसी ही वनवास के समय भी उपस्थित थी। अर्थात महापुरुषों को संसार की पीड़ा डिगा नहीं पाती। वह जानते हैं कि हर पीड़ा हमारे जीवन में एक परीक्षा लेकर आती है। वह हमें इस संसार में जूझने की शक्ति प्रदान करती है। उससे हम कुछ सीखते हैं। वह जीवन ही क्या जो एकरस हो। जिसमें उतार-चढ़ाव न आए। जहॉं कोई मोड़ न हो।
क्या हम प्रकृति की उस स्थिति को अच्छा कहेंगे जिसमें साल के बारह महीने वर्षा में ही बीत जाते हों अथवा पूरे वर्ष भर जाड़ा बना रहता हो। अच्छा यही होता है कि जाड़ा, गर्मी और बरसात प्रकृति अपने भीतर एक उल्लास लेकर उपस्थित हो। इसी से मनुष्य, पशु, पक्षी और पेड़-पौधे उल्लासित होते हैं। सुख के बाद दुख और पीड़ा के बाद उमंग एक सहज स्थिति होती है। यह एक चक्र है जो हर व्यक्ति के जीवन में घूमता है।
कुछ लोग इतने छुईमुई के पेड़ की तरह होते हैं कि जरा-सी पीड़ा जीवन में आई नहीं कि अर्ध-मूर्छित अवस्था को प्राप्त हो जाते हैं। हड़बड़ा जाते हैं। मानसिक संतुलन खो देते हैं और सब प्रकार से हताश और निराश हो जाते हैं। ऐसे लोग जीवन में दुख-दर्द आने पर भी कुछ सीख नहीं पाते। सीखने के लिए जीवन में धैर्य का होना अत्यंत आवश्यक है। साहस ही मनुष्य को कुछ नया कर दिखाने की प्रेरणा देता है। पीड़ा आते ही व्यक्ति अगर धैर्यवान है तो उस पीड़ा के मूल कारण की खोज करता है और उससे छुटकारा पाने के लिए योजनाबद्ध तरीके से काम करना शुरू कर देता है।
कई बार वास्तव में पीड़ा की परिस्थितियों में एक श्रेष्ठ शिक्षक व्यक्ति को मिल जाता है । उदाहरण के लिए जब महाभारत का युद्ध उपस्थित हुआ और अर्जुन विषाद में डूब कर अकर्मण्यता की स्थिति को प्राप्त होने ही वाला था तब कृष्ण रूपी सारथी अर्थात शिक्षक उसके जीवन में आए और उन्होंने गीता का उपदेश सुनाकर अर्जुन को अकर्मण्य के स्थान पर महान कर्मशील योद्धा में परिवर्तित कर दिया। पीड़ा व्यक्ति को दार्शनिक भी बनाती है। पीड़ा व्यक्ति को विचारशीलता के महासमुद्र में गोता लगाना भी सिखाती है। एक पीड़ित व्यक्ति ही संवेदनशीलता के साथ विश्व की यथार्थता को देखने और परखने का पूर्ण ज्ञान व्यक्ति में उत्पन्न करती है। इसी के कारण व्यक्ति के भीतर अनेक बार छठी इंद्रिय जागृत हो जाती है जो उसे मानव की सामान्य समझ से परे अद्भुत चेतना संपन्न बनाती है।
पीड़ा हर प्रकार से व्यक्ति के उत्कर्ष में सहायक है। उसके जीवन में गुरु का काम करती है। उसे प्रेरणा और आनंद से भरती है। उसकी अंतर्निहित शक्तियों को जाग्रत करती है । अधिक क्या कहना, पीड़ा ही व्यक्ति को बलवान बनाती है। पीड़ा ही उसे संसार में सब प्रकार के युद्ध जीतने के लिए सक्षम बना देती है। पीड़ा को सौ-सौ बार प्रणाम !
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लेखक: रवि प्रकाश
बाजार सर्राफा (निकट मिस्टन गंज), रामपुर, उत्तर प्रदेश
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