पीड़ा को झरते देखा
जीवन-पर्वत के
जंगल में,
मन-मृग को
चरते देखा।
सरिता की प्यासी
आँखों से,
पीड़ा को झरते देखा ॥
चपला चंचल
विपदाओं की,
भयाक्रांत
करती गिरती ॥
मेघों की
गर्जना डराती,
संशय -घटा
कलुष घिरती ॥
नेह – मेघ को
फिर भी हमने,
बिन बरसे फिरते देखा ।
उमस – व्यग्रता
की चिप -चिप से,
स्वेद – व्याधि
आते रहते।
पवन – झकोरे
और जलाते,
ताप – शाप
लाते रहते ॥
साँसों में पीड़ा
की गर्मी,
अपनों को भरते देखा I
धरती – मुँह
बाए चिल्लाती,
कृपा वृष्टि
कब तक होगी ।
प्राणी कहीं न
हों निष्प्राणी,
बूँद अमर
जब तक होगी ॥
आज निराशा की
आँचल में ,
आशा को मरते देखा।