पितृसत्तात्मक समाज
महीने का आखिरी सप्ताह,
पॉकेट में चंद दस के नोट,
और बच्चे को है बुखार।
डॉक्टर की महंगी फीस
और दवाइयों के आसमान छूते दाम,
जोड़ घटाव के जद्दोजहद में उलझे पिता
कर रहे किसी तरह इंतजाम।
और हमें समस्या है कुछ
ऐसे ही पितृसत्तात्मक समाज से।
महीने का आखिरी दिन,
घर में आये चंद मेहमान,
आवभगत की करनी है तैयारी,
विदाई का भी है करना इंतजाम,
खाली जेब करा रही है
जिंदगी के कड़वे हकीकत से दो चार।
आँखें झुकी है शर्म से
कर रहे है ऋण का इंतजाम
किसी तरह परिवार की आबरू बचे
उठे न कोई सवाल
और हमें तकलीफ है कुछ ऐसे ही
पितृसत्तात्मक समाज से।
दोष समाज में नही,
नही है स्त्री और पुरुष में
दोष है संकुचित सोच में
और परवरिश में।
आधुनिकता का झूठा दम्भ
और स्वतंत्रता के नाम पर
स्वच्छन्दता की होती पैरवी
विकास के अंधाधुंध दौड़ में
गुम होती हमारी सभ्यता ,
और फिर एक बार दिक्कत होती है
हमें
इस पितृसत्तात्मक समाज से।