पिता
क्या जानो तुम कैसे एक पिता बेटी को पालता है,
परिस्थितियों से लड़कर खुद को चट्टानों में ढालता है।
टुट जाता है वह पिता एक दिन दहेज के लोभियों के हाथ,
तकदीर ने जो कलेजे के टुकड़े को छीन कर उसे किया दरिंदों के साथ।
निरीह सी एकटक वह गुड़िया देखती है बाबा को अपने,
असहाय है वह पिता जो अपनी लाडली के लिए देखता था महलों के सपने।
दहेज की ये डायन प्रथा ना जाने कितनों का घर जलायेगी,
मानवता को शर्मशार कर कितने दिलों को तड़पायेगी।
करों बहिष्कार इस गंदे समाज के गंदे रीति रिवाज को,
दिल से अपना कर बहु को नया संदेशा दो समाज को।
फूल सी खिलेगी देखना एक बेटी तुम्हारे आंगन में,
क्या जाओगे फिर मंदिर मस्जिद, जन्नत होगी तुम्हारे घर में।
आराध्या राज (बोकारो)