पिता
पिता
पितृ-भाव को सोहे,शब्द कहाँ से लाऊँ।
अर्थ पिता का समझे,शब्द कहाँ से पाऊँ।
नभ-सा वृहद छत्र तुम,पर्वत-सी ऊँचाई ।
अगाध मनन करो तो,सागर-सी गहराई ।
रवि की उष्णता कभी ,हिम जैसी शीतलता ।
मृगतृष्णा में जैसे ,हो वारि की मधुरता ।
वेद-ग्रंथ की वाणी,तुम बरगद की छाया ।
दुरूह रास्ते पर भी,हरपल कदम बढ़ाया ।
तुम्हीं रहे धन्वंतरि ,तुम्हीं कुबेर विधाता।
विश्वकर्मा तुम्ही हो,शिल्पकार निर्माता ।
ब्रह्मलोक के ब्रह्मा, रजतप्रस्त शिव ध्यानी ।
पालनहार विष्णु तुम,अभाव में भी दानी ।
सरल सहज मानुष हो,सरल सहज है काया।
दृष्टि कहे संतति की,तुम में जगत समाया ।
पौरुष पिता-रूप धर रिश्तों में जब खोता।
पिता एक उम्मीद भाव संतति में होता ।।
अनिता सुल्तानियाँ अग्रवाल
रायपुर (छत्तीसगढ़)