पिता
जब औलाद का कद
पिता के बराबर हो जाता है –
वह अपनी उपलब्धियों पर इतराता है –
और पिता के कुर्बानियों को भूल जाता है –
उल्टे पिता से सवाल करने लगता है –
उनसे बेरुखी से तन कर बात करने लगता है –
वह आरोप लगाता है,
“आखिर आपने मेरे लिए किया ही क्या है?
और जो किया भी तो इसमें नया ही क्या है?
मैं भी तो अपनी संतान की देखभाल कर रहा हूँ
और आपकी अकर्मण्यता पर मलाल कर रहा हूँ;
जमाना बदल गया है
पर आपकी सोच का ढर्रा वही पुराना है,
लेकिन मुझे तो जमाने के कदम से कदम मिलाना है।”
झुक जाते हैं पिता के कंधे –
परिवार की जिम्मेदारियों के बोझ तले –
पिता होता है अपने परिवार की धूरी –
मगर कौन, कब समझता है
उसकी लाचारी, उसकी मजबूरी?
©पल्लवी ‘शिखा’, दिल्ली।