पिता
वो जो कुछ बातें
मैं कहीं आधी अधूरी छोड़ आया था,
चाहता था कि तुम
उन अधूरी बातों को ठीक उसी
तरह करो
जो मेरे वक़्त में मुझे करनी थी,
वो जो सपने मैंने देखे थे,
चाहता था कि तुम भी
फिर वैसे स्वप्न देखो
वो छोटी मोटी बेशुमार गलतियाँ
जो कभी की थी मैंने
चाहता था
तुम न करो अब,
मेरी वक्त बेवक्त की खीज,
झिड़की और
कभी कभार की डाँट फटकार
जरूर नागवार गुजरी होगी तुम्हें,
यकीन करो
तुम्हारे हर एक बढ़ते कदम पर
अपनी खुशियाँ दबाये
मैं भी चुपके से पीछे पीछे ही था,
यकीनन ये भूल
तो यदा कदा की है
तुम पर खुद को थोपने की!!
पर क्या करता?
तुम मेरा ही एक और
जीता जागता हिस्सा भी तो हो!!
अब जब तुम्हारा कद
खुद के ही बराबर निकल आया है
तो अब मैं कुछ दिन
चैन की साँस लूँगा
फिर तुमसे निकली
नन्हीं कोपलों को भी
चाहे अनचाहे
जाने अनजाने
कुछ हिदायतें और मशवरे
भी जरूर दूँगा।
बूढ़ा , सठियाया बरगद
अपनी शाखों को
पूरी तरह उनकी मर्जी पर
कैसे छोड़ दे भला?
???