पिता
पूज्यनीय पिता को श्रद्धांजलि है अर्पित,
जिसने किया संतान के लिए सर्वस्व समर्पित।
पर कहाँ होते हर संतान भाग्यशाली,
जिन्हें मिलती स्नेह पिता की भर भर थाली।
है यदि माँ, तो हीं है स्नेह संपन्न संग,
छिन गया आंचल उड़ गए बन पतंग।
कब था, है होगा विमाता का कंचन भाव, ?
जिस आंचल से छन कर टपके प्रेमभाव।
जो थे कभी बालक के विशाल गगन,
जाने कहाँ खो गए, जिनके थे बच्चे नयन।
जब श्रीराम की विमाता हीं हुए न अपने,
तो क्या पूरे होंगे उस बालक के सपने।
थे वो दशरथ राम- राम कह कर त्यागा प्राण,
निज पिता से पा न सका अभागा त्राण।
तरस रहा वह बाल नयन,
कब होगा उस पिता में अंक चयन।
हाँ! सच है पिता होते ईश्वर के अवतार,
फिर पांत खड़े क्यों याचक बन निराधार,
उस बालक के मनोभाव को समझे कौन,
हैं जब काम लिप्त जनक हीं मौन।
चल उठ! है कितना बड़ा आकाश,
हर प्यासे की बुझाता वही प्यास।
उस पिता सा है पालक और कहाँ,
उनकी क्षत्र छाया मिले दृष्टि पाए जहाँ- जहाँ ।
उमा झा