पिता श्री
गीतिका
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(आधार छंद गीतिका- 2122 2122 2122 212)
समांत -अले, अपदांत
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दिन बहुत बीते नहीं मिल पा सके मिल के गले ।
छत नहीं सिर पर रही थी आप जब काँधे चले ।।1
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भोर भी रोने लगी थी साथ लेकर सिसकिया्ँ ।
बर्फ से अंदर कहीं हम टूटकर तिल-तिल गले ।।2
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देखिये कैसे पसीना रंग लाया आपका ।
आप ही बस हो नहीं ये देख कर मनुआ जले।।3
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आपने जो स्वप्न देखे हो गये साकार वे।
आपने चाहा उसी आकार. में हम हैं ढले ।।4
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हर खुशी है पास में बस आप ही दिखते नहीं ।
याद है हमको पले थे आपकी छाया तले ।।5
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है हमें ये गर्व मन में आपने जीवन दिया ।
किस तरह से जूझते हम आपके हाथों पले ।।6
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गंध उर में उठ रही है याद की भीनी मधुर ।
शत नमन पितु आपको हैं आप थे भोले-भले ।।7
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महेश जैन ‘ज्योति’,
6- बैंक कालोनी, महोली रोड़,
मथुरा-281001/मो० -9058160705
प्रस्तुत रचना मेरी अपनी मौलिक कृति है ।
महेश जैन ‘ज्योति’