पिता बेटी
!!कभी अपनी सी लगती हैं,कभी गैरो सी लगती हैं!!
वह घर की देवी होकर भी,हमें क्यों बोझ लगती हैं!!
चली जाती हैं एक दिन वह ,लगा मेहंदी हथेली पर
वह घर की बेटी होती हैं ,जो रोशन कुल दो करती हैं!!
दहेज के लालची और उस विवशता से पूर्ण पिता की मजबूरी को इस मुक्तक में दिखाने का प्रयास किया हैं!
!!दीनो की तरह माँगा,अमीरो की तरह पाया!
मगर उस बाप की तंगी,नहीं कोई समझ पाया!!
दानवपन दिखा तूने ,बहुत पाया मगर सुन ले!
बिकी रोटी थी उसकी जब ,महल तेरा यह बन पाया!!
!!आई जन्म लेकर तब,उदासी मुख पे छाई थी
रचाने ब्याह की चिंता,दिवस और रात खायी थी,
धरा गिरवी को रख उसने,किया सर्वस्व समर्पित तब
कलेवर जान आई थी,मुख मुस्कान आई थी!!