पिता दर्पण
आपके पिताजी कैसे थें।
मत पूछो मेरे मुन्ने मेरे पिताजी कैसे थें।
अगर मैं करने लगूं उनका गुणगान,कम पड़ जाएगा ये पब्लिस पेज़।
सच, झूठ को लेते पकड़,चाहे लिया हो कोई भेष।
बात अगर फेंकी हैं तो कहता हूं,लो सुनो।
मेरे पिताजी कैसे थें,मेरे पिताजी मेरे दर्पण थे।
गांधी बाबा के पथ चिन्हों पे चलते थें।
अहिंसा के ओ भी पुजारी थें,सबको गले लगाते थें।
ना था उनका किसी से बैर।
कांधे पे बैठाकर करातें थें वे हमको सैर।
खाने-पीने के शौकीन थें, मिज़ाज के रंगीन थें।
हिन्दू, मुस्लिम,सीख, ईसाई सबको कहते थें वे भाई-भाई।
हमको था उनपे अभिमान, उनके थे हम स्वाभिमान।
करतें थे सदा पूरा मेरा अरमान।
देश के लिए जीतें थें,देश के लिए मरतें थें।
देश के खातिर हरदम जान अपना निछावर करतें थें।
देश भक्ति से बड़ा कोई धर्म,जाति नहीं,सदा यहीं कहते थें।
मेरे पिताजी मेरे प्राण से भी प्यारे थें।
मेरे गुरु, मेरे मार्गदर्शन, मेरे भगवान सब कुछ मेरे लिए मेरे पिताजी थें।
नीतू साह
हुसेना-बंगरा,सीवान-बिहार