पिता का दर्द
एक बात बताओ ऐ खुदा
पूछ रहा है एक पिता
ये कैसा युग आया हैं
जो एक कुआं सबको पिलाता था
आज ओ दो मिठीं बोल के लिए तरस जाता है
धर्म वहीं हैं,कर्म वहीं हैं
तू भी वहीं हैं , इंसान भी वहीं हैं
फिर ये कैसा शिष्टाचार संतानों में आया है
कि जो कभी जन्मों-जन्मों के साथी थें, आज उनके अंश ही बागवान चलचित्र घर मे दोहराया है
जिसने सींची ज़मीं, जिसने डालीं बीज
जिसने ईंट बनाईं, जिसने डालीं नींव
उसी का दुनिया अब उसी का नहीं
फिर ये कैसा मोह-माया हैं
एक छत के नीचे रहकर पिता को बेटा भूलाया हैं
इस युग का बेटा, बांट रहा हैं आधी उम्र , महीनों में
हर एक रूपए का खर्च पिता का रखता हैं हिसाबों में
आखिर ये कैसा लहर घर-घर छाया हैं
आज कल पिता पे परिभाषा ‘कलयुग का बेटा’ इंटरनेट पे सब को हंस-हंसकर सुनाता है।।
नीतू साह
हुसेना बंगरा,सीवान-बिहार