पिता:(प्रदीप छंद)
सारे वैभव के तुम दाता,
तू ही जग की शान हो।
तुमसे ही सब घर की शोभा,
त्यागपथी व महान हो।
कहते जग का पालनहारा,
सिर्फ एक ही एक है।
मुझको लगता है वसुधा पर,
दूजा तू भी नेक है।
शान्त चित्त में सागर भरकर,
हिचकोले को नापते।
जेठ दोपहरी कड़की ठंढक,
तर होते ना काँपते।
कर्म धर्म को खूब समझते,
सम्मुख लक्ष्य अपार है।
लक्ष्मी को प्रसन्न कर लाते,
मेहनत जीवन सार है।
त्यागपथी होकर भी तुझमें,
कभी न दिखता कष्ट है।
कृपा सिंधु अविरल ही रखना,
विनती जग की स्पष्ट है।
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अशोक शर्मा, कुशीनगर,उ.प्र.