पिज़्ज़ा बर्गर के मुक़ाबले बहुत पिछड़ी है
पिज़्ज़ा बर्गर के मुक़ाबले बहुत पिछड़ी है
अब तो बस मरीज़ ही खाय दलिया खिचड़ी है
जहाँ अश्क़ गिरें उठे आग वहाँ से कैसे
धुआँ ही धुआँ हरसु देती गीली लकड़ी है
दीवार-ए-वक़्त गर उल्फ़त से नम ना होगी
झड़ के गिर जाएगी जैसे सूखी पपड़ी है
देखते ही रह गये हुनर देखने वाले
क्या खूबसूरत जाले बनाती मकड़ी है
दरमियाँ मेरे और ख़ुशी के हमेशा रही है
अना मेरी जाने इतनी क्यूँ अकड़ी है
बहुत फ़ायदेमंद मुलायम ठंडक देती थी
मेरा वज़ूद क्यूंकर मिटा कहती गुदड़ी है
जब से दौलत का जलवा-ए-हुस्न नुमायां है
इंसान से इंसानियत ‘सरु’ तब से बिछड़ी है