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गाॅंव का स्कूल घर से पैदल पाॅंच मिनट की दूरी पर था। वैसे तो स्कूल का समय सुबह दस बजे से चार बजे तक था, पर गर्मियों के दिनों में मॉर्निंग स्कूल होता था। डे स्कूल में हम लोग एक बजे टिफिन में खाना खाने के लिए घर ही आ जाते थे और फिर खाना खाकर स्कूल वापस जाते।उस समय स्कूल में छात्रों के लिए मध्यान भोजन की व्यवस्था नहीं थी। स्कूल के एक मास्टर साहब हम लोगों को पढ़ाने के लिए दरवाजे पर रहते थे। उन्हीं की देख रेख में हम लोग स्कूल से आया जाया करते थे। उस समय अकारण स्कूल से अनुपस्थित रहने की स्थिति में स्कूल से दो-तीन लड़के को अनुपस्थित लड़का को स्कूल लाने के लिए उसके घर पर भेजा जाता था। क्लास के कुछ लड़के घर से अनुपस्थित लड़कों को स्कूल लाने में महारत हासिल किए हुए था। दूसरे लड़कों की पढ़ाई के पीछे जागरूक रहने वाले ऐसे लड़कों का वार्षिक परीक्षा फल प्रायः उदासीन करने वाला रहता था। माॅर्निंग स्कूल में टिफिन नहीं होता था। सुबह एक बार जाते तो छुट्टी होने के बाद ही ग्यारह बजे वापस आते। डे स्कूल में टिफिन में आने जाने का अपना एक अलग मजा था। खासकर कृष्णाष्टमी, दुर्गा पूजा और काली पूजा के समय मंदिर में बन रही मूर्तियों को निहारना और किए गए कार्यों की समीक्षा करना हमलोगों का मुख्य कार्य होता था। गुस्सैल स्वभाव का स्वामी था मूर्ति कलाकार अमलू, जिनका हम बच्चों को मूर्ति के पास देखते ही पारा चढ़ जाता था और चिल्ला चिल्लाकर मूर्ति से दूर रहने के लिए कहता था। हम बच्चे मन ही मन उसको खूब कोसते और सोचते,काश मूर्ति की उंगली और नाक टूट जाए,लेकिन उसके सामने एकदम भोला बनकर रहते, जिससे मूर्त्ति देखने में उसकी डांट कभी नहीं सुननी पड़े।