*”पिंजरे के पँछी”*
पिंजरे के पँछी
पिंजरा पँछी पांच तत्वों से बंधा हुआ एक दिन उड़ चले जाना है।
मायामोह के जाल बुनकर रिश्तों से मुक्तिबोध पा जाना है ।
खुले आकाश में उन्मुक्त हो माटी का पुतला माटी में ही मिल जाना है।
पिंजरा चाहे लोहे या सोने का हो मजबूत दीवारों से भी खोल उड़ जाना है।
कह ना सके अपनी कहानी जीव जगत जिंदगानी निभाना है।
विधि का विधान लेखा जोखा कर्म बंधन में बंध जाना है।
दर्द किसी को क्या बतलाये बाहर से खामोश अंर्तमन से रोते जाना है।
दुनिया फिरती इधर उधर अब कैदी बन घर पर ही मन बहलाना है।
एक डाल के पँछी हम सुनहरे सपनों में खो जाना है।
मानव देह पिंजरा आत्म बंधन मायामोह चक्र भ्रमजाल है।
सत्यता का पालन करते हुए सीमित दायरों में बंध जाना है।
ऐसा पँख लगा दो प्रभु जी आजाद पँछी बन नील गगन में उड़ जाना है।
शशिकला व्यास ✍️