पिंजरा
दरकते संबंध
हैं
मुट्ठी में
रेत से
संबंध
फिसल जाते
कब ?
चलता नहीं
पता
बहुत
नाजुक
ये संबंध
हुई घुसपेठ
ग़ैर की
दरकते
संबंध
ज्यों रेत से
रखो
विश्वास
एक दूजे पर
मत रखो
जगह
सूई नौक सी
जियेंगे जिन्दगी
खुशहाल
और कहे
क्या
“संतोष”
न सुनों
किसी की
कहे जो दिल
मानों उसी की
दरकते
संबंधों को
न दें हवा
उड़ जाता है
प॔छी
बस
हर जाता है
पिंजरा
खाली
स्वलिखित
लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल