पारितन्त्र
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गांव की चाहत में
प्रकृति के साहचर्य को
शहर वाले
गाँव में जा बैठे।
गाँव शहर बन गए…
खेत भूखण्ड बन गए..
तबेलों के मोलभाव हो गए..
कंक्रीट पर
गायों के खुर फिसलने लगे..
गाँव वालों को भी
अच्छा लगा…..
मूली, गाजर के खेत
करोड़ों में बिक गए…
शहर में कोठियां ले लीं.
गोबर की दुर्गंध से दूर
रूमफ्रेशनर के हवाले हो गए….
नीम की छांव तपने लगी..
एयरकंडीशन के सहारे हो गए।
और गांव की तलैया…
जहां बगुले का ध्यान था
बच्चों का मछली पकड़ने का खेल था…..
पट गयी….
हां पट गयी…
अच्छे पैसे मिले,
सो बिक गयी…..
गाँव में जेसीबी चलने लगी…
सुना है तलैया में मॉल बनेगा…
गाँव वाले बहुत खुश हैं,
शहर वाले बहुत खुश हैं,
पर…..
बगुला बिना मछली के मर रहा है….
और मछली बिना पानी के
मर रही है….
ये कैसा इकोसिस्टम है?
हमें तो तालाब के पारितन्त्र में ,
कुछ और ही पढ़ाया गया…
~माधुरी महाकाश
#माधुरीमहाकाश #प्रदूषण