पाबंद मगर स्वतंत्र नारी
पाबंद मगर स्वतंत्र नारी……
पाबंदी-ए-आवाज़ लगा, ,,,,,,कहते हो तुम स्वतंत्र नारी।
पाबंदी-ए-परवाज़ लगा, ,,,,,कहते हो तुम स्वतंत्र नारी।
पाबंदी लबों पर लगादी, ,,,,,,,कहीं गुनगुना न पाऊँ मैं।
पाबंदी ख्वाबों पर लगादी,,,,,,कहीं पंख न फैलाऊँ मैं।
पाबंदी स्वतंत्र सोचने की,,कहो कैसे फिर स्वतंत्र हूँ मैं?
पाबंदी स्वतंत्र विचरने की,कहो कैसे फिर स्वतंत्र हूँ मैं?
स्वतंत्र हूँ मैं,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,समाज पुरुष प्रधान में,
यह अभिव्यक्ति ही,,,,,,,,,,,,,,,,,,, मिथ है अतिरेक है।
स्त्री जाति,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,मन मस्तिष्क को भरमाने ।
समाज ने लगाया,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,खूब बुद्धि विवेक है।
नीलम अंबर में स्वतंत्र उड़ान को,भला कब सैयाद रोक पाया है।
ले खुद को साध संग लक्ष्य बांध,,,,,मंज़िल का बुलावा आया है।
-नीलम शर्मा………✍️