पाप की कमाई
‘बहुत दिनों बाद हमारी याद कैसे आ गयी मित्र! मैं तो समझता था तुम मुझे भूल ही गये। आओ बैठो।’
सागर को अपने दरवाजे पर आया देखकर दलबीर सिंह खुश हो गया था।
‘भूलने का तो प्रश्न ही नहीं है मित्र! तुम और तुम्हारी याद हमेशा मेरे जेहन में मौजूद रहती है। बिटिया के शादी के सिलसिले में इधर आया था तो सोचा तुमको भी सलाम करता चलूँ। और बताओ बहुत बीमार दिखते हो!’ सागर ने बैठते हुए कहा।
‘हाँ यार! तवियत तो बहुत दिनों से खराब चल रही है, एक ज़माना था जब मेरी तंदरुस्ती और जवानी दुनिया देखती थी, तुम तो जानते ही हो!’
इसी बीच नौकर चाय लेकर आता है।
सागर चाय उठता है ‘एक ही चाय क्यों? तुम चाय नहीं पीते क्या मित्र!’
‘नहीं मित्र! डॉक्टर ने मना कर दिया है। मेरी पसंद की लगभग सभी चीजों पर पाबंदी है। मैंने अपने जीवन को सफल बनाने के लिए क्या क्या नहीं किया? कितने लोगों के साथ बेईमानी की, कितने लोगों को मारा-पीटा, डराया-धमकाया। हालांकि तुम मना करते रहे पर मुझे सद्बुद्धि नहीं आयी।’
‘छोड़ो यार! पुरानी बातों को अब याद करने से क्या फायदा, जो हो गया उसे तो तुम बदल नहीं सकते। अच्छे से अपना इलाज कराओ, तुम अवश्य ही ठीक हो जायोगे।’
‘बहुत इलाज करा चुका हूँ मित्र! पर कोई दवा काम करती ही नहीं…! मैंने जवानी में जाने अनजाने बहुत से बुरे काम किये हैं, अब बुढापा काटे नहीं कटता। एक पाप तो मैंने ऐसा किया था कि तुम भी नहीं जानते।’
‘ऐसा क्या पाप हो गया था तुमसे?’
‘बात उन दिनों की है जब मैं उत्तराखंड की यात्रा पर था, रास्ते में एक व्यक्ति ने मुझसे मदद माँगी थी, उसका और उसकी पत्नी का एक्सीडेंट हो गया था। मैं अपनी बाइक से उतरा तो देखता हूँ उसकी पत्नी मर चुकी है और उसका पूरा बदन गहनों से भरा पड़ा है। इसी बीच मदद माँगने वाला व्यक्ति भी अचेत हो गया। मैंने इस पल का लाभ उठाया। मैंने महिला के सारे गहने उतार लिए और चलता बना। सुबह के समाचार में इसकी खबर छपी थी कि भयानक दुर्घटना में पति-पत्नी की मौत, बगल की झाड़ी से एक साल की बच्ची बरामद। बच्ची की हालत गंभीर किंतु नियंत्रण में।’
इतना कहने के बाद दलबीर सिंह चुप हो गया, उसकी आँखों में आँसू थे। उसने आगे कहा।
‘बिटिया की शादी करने के बाद मैं बिल्कुल अकेला हो गया हूँ, बेटी दामाद कनाडा में नौकरी करते हैं। यहाँ आना तो दूर अब तो उनके फोन की भी प्रतिक्षा करनी पड़ती है। खैर छोड़ो, तुम अपनी बिटिया की शादी के बारे में निकले हो, कहीं बात चल रही है क्या?’
‘नही अभी कोई ढंग का लड़का ही नहीं मिला! शादी-ब्याह का मामला है, समय लगे ठीक है पर वर अच्छा मिले इसी प्रयास में हूँ।’
‘मित्र! एक बात कहूँ! बुरा तो नहीं मानोगे!’ दलबीर सिंह ने हाथ जोड़ते हुए कहा।
‘कहो मित्र, इतना मत सोचो!’
‘मित्र! मैंने प्रॉपर्टी तो बहुत बना ली किंतु आज मेरी स्थिति वो नहीं है कि असीम संसाधनों का सदुपयोग कर सकूँ। जब सदुपयोग का समय था तब येन-केन-प्रकारेण सिर्फ इसे अर्जित करने में लगा रहा। आज जब इसकी अधिकता है तो शरीर साथ नहीं दे रहा। मित्र! मैं चाहता हूँ कि तुम्हारी बिटिया के विवाह में जो भी खर्च हो उसे मैं वहन करूँ। तेरी बिटिया, मेरी भी बिटिया है मित्र! मेरा निवेदन स्वीकार कर लो!’
‘नहीं मित्र! ईश्वर का दिया इतना धन है मेरे पास कि बिटिया की शादी धूमधाम से कर सकूँ। मैं इस शुभ कार्य में तुमसे तुम्हारे पाप की कमाई नहीं ले सकता! मुझे क्षमा करना मित्र! अब मुझे आज्ञा दो काफी विलम्ब हो चुका है घरवाले राह देख रहे होंगे! नमस्ते!’
सागर वहाँ से चल देता है। दलबीर सिंह कभी अपने मित्र को जाते हुए देखता है तो कभी अपनी पाप की कमाई को।
-आकाश महेशपुरी
(साहित्यपीडिया कहानी प्रतियोगिता)