पापा
तुम्हें ही ढूँढती रहती तुम्हारी लाडली पापा
तुम्हारे बिन हुई सूनी बहुत ये ज़िन्दगी पापा
अँधेरी रात हो कितनी उजाले ही भरे तुमने
बिछाकर नेह की अपनी हमेशा चाँदनी पापा
सिखाया था जहाँ चलना पकड़कर उँगलियाँ मेरी
गुजरती हूँ वहाँ से जब रुलाती वो गली पापा
मिले चाहें यहाँ कितने मुझे अनमोल से रिश्ते
मिला लेकिन जमाने में नहीं तुम सा कोई पापा
ख़ुशी चाहें मिले मुझको या गम की बात हो कोई
मुझे महसूस होती है तुम्हारी ही कमी पापा
मनाना ‘अर्चना’ उनका बहुत अब याद आता है
लड़ाते लाड़ थे कहकर कहाँ मेरी परी पापा
डॉ अर्चना गुप्ता