पापा मैं तेरी बिटिया हूं
पापा मैं तेरी बिटिया हूं
तुमसे ही पहचान मिली ।
आंख खुली मां की गोदी में
पढ़ी बढ़ी मैं यहीं खिली ।
सब कर्तव्य निभाये तुमने
सघन प्रेम की छाया दी।
खुद के स्वप्न समेटे सब
मेरे स्वप्नों को काया दी।
किन्तु ये कैसा न्याय हुआ?
मुझे नाम तुम्हारा नहीं मिला ।
हासिल अब तक सब छूट गया
फिर एक नया घर बार मिला ।
कैसे ये मन स्वीकार करे ?
तुम पर मेरा अधिकार नहीं।
जहां जन्म मिला और पोषण भी
वो अब मेरा परिवार नहीं।
मैं रही आपका कर्तव्य प्रमुख
फिर इतर मेरे कर्तव्य है क्यों ?
मैं नहीं दृव्य या वस्तु कोई
फिर मेरे दान की रस्म है क्यो ?
क्यों भाव शून्य हो जाता जग
स्त्री की विकट वेदना से ।
परम्परा की वेदी पर
क्यों वो ही निज सर्वस्व तजे ?