“पापा की धुँधली यादे”
सहेज कर रखा हूँ दिल में
पापा की धुँधली यादों को,
विन्रम एवं आदर्शवादी
व्यक्तित्व को।
बच्चों और परिवार के प्रति था
उनका अद्भुत समर्पण,
मेरे पापा थे कर्तव्यपरायण।
हमेशा शक्ति और स्तंभ रूप में
कार्य किया हमारे लिए,
परिवार को सदैव महत्व दिया
खुद से पहले।
सही -गलत, उचित -अनुचित,
सत्य-असत्य, भला – बुरा का
कराया हमको भान,
मेरे पापा की समाज में थी अलग
पहचान।
उनके रौब मिजाज से हम
बहुत डरते थे,
लेकिन हमारी हर फरमाइश
पूरी करते थे।
ममता के अनजाना और अनदेखा
रूप थे,
मेरे पापा तो देवता स्वरूप थे।
उनके प्रभाव को नही मापा जा
सकता था किसी पैमाने पर,
सदैव जान छिड़कते अपने परिवार
पर।
मित्र-दोस्तों में थी उनकी अलग
पहचान,
सभी करते थे उनका सम्मान।
धीरे-धीरे खुशियों संग बीत रहा
था हमारा बचपन,
हर दिन रहती थी दीवाली
हर दिन था रक्षाबंधन।
आनंद ही आनंद था हमारे
जीवन में,
सभी तरह के फूल खिलते थे
हमारे उपवन में।
एक दिन दादी से कहाँ पापा
ने माई लाने जा रहा हूं इससे भी
ज्यादा खुशियाँ,
यही कहकर हम सबसे उन्होंने
विदा लिया।
बहुत रोका-टोका दादी ने लेकिन
उनकी एक नही सुना,
क्योंकि चल गया था चक्र काल का।
एक पल में दूर हमसे हो गए,
मेरे पापा परदेश चले गए।
हां मुझे याद है वो कड़कड़ाती
सर्दी की रात,
जब परदेश से आयी ज्यादा खुशियों
की जगह पापा की लाश।
पूरा परिवार गम में डूब गया,
हाय ! हमारे साथ कैसा अनहोनी
गया।
लेंगे गए थे हमारे लिए ज्यादा खुशियाँ
रोये कहके माई और दादी-दादा,
ये कैसा खेल रचा दिया तूने वो विधाता।
ये दृश्य देख फट रहा था सबका कलेजा,
रो-रो कर हाल बुरा था फुआ
और चाचाओं का।
हमको नही हो रहा था विश्वास,
छोड़ गए पापा हमारा साथ।
करके हम भाई- बहनों को पितृ विहीन।
हो गए पापा राधेश्याम (भगवान कृष्ण)
में विलीन,
पापा की कर्तव्यपरायणता को मैं भी
अपने जीवन मे उतार सकूँ,
ईश्वर से यही करता हूँ विनती अपने
परिवार के प्रति सदा समर्पित रहूँ।
“फ़ादर्स डे पर ये कविता पापा को समर्पित जो मृत्युलोक को छोड़ कर गौलोक चले गए”।
(स्व रचित) आलोक पांडेय