पानी!
खुदगर्जी को न समझो तुम, शान का पानी।
मददगार बनो कि हरसू रहे, आन का पानी।।
क्यों बने मोहताज कि मिले, सम्मान का पानी।
आज के माहौल ने है बदला, संतान का पानी।।
क्यों बेटियों के शीश टिका, खानदान का पानी।
बस बेटे ही बन गए हैं क्यों, अरमान का पानी।।
कोई तरसे कि अब बरसे, आसमान का पानी।
यूँ सरहदों पे क़ाबिज़ रहे, निगेहबान का पानी।।
ऐसे खौफ में क्यों जी रहा, इंसान का पानी।
बेख़ौफ़ हो विचरता सिर्फ, शैतान का पानी।।
न सोचना कि जीतेगा ही, बेईमान का पानी।
कुत्सिकों को खारा करे, संविधान का पानी।।
©® पांडेय चिदानंद “चिद्रूप”
(सर्वाधिकार सुरक्षित २३/०३/२०२० )