पानी
पानी
हाँ मैं मानता हूँ
देखने में मेरी हस्ती
क्या है कुछ भी नही
आग पर गिरूं
जलकर भाप बन उडूं
धरा पर गिरूं
हर प्यासा रोम
अपने अंदर मुझे सोख ले
जो गिरूं किसी ताल में
लहरों में बिखर-बिखर
छम-छम कर लहरा उठूं
इतना कुछ होने पर भी
मेरा एक अलग नाम है
मेरी एक अलग पहचान है।
वर्षों पुरानी मेरी दास्तान है
जो आज यहाँ पर बयान है।
जब तपती है धरा तो
टकटकी बांधकर लोग मुझे
नीले साफ आसमान में
बस मुझे ही हैं ढूंढते
तब मैं काले सफेद मेघ बन
उडेलता हूँ छाज भरकर
दानों रूपी बूंदों को
जो पेड-पौधे ओर उनकी जडों को
सींचता हुआ चला जाता है।
जब मानव परेशान होकर
बैठ जाता है तब उसकी आँखों में
मैं उमड पड़ता हूँ।
कल-कल करता जब बहता हूँ
तब मेरा रूप सुन्दर हो जाता है।
जब इकट्ठा होकर बहता हूँ कहीं
अपने अंदर समेट कर सब कुछ
बह निकलता हूँ।
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नवल पाल प्रभाकर