पाखी_मन
शीर्षक :–अवसर (छंदमुक्त ,स्वतंत्र सृजन)
मिला अवसर उन्हीं को था ,
बने संबंध जिनसे आत्मीय ।
पंक्ति में पहले आकर भी ,
रहे खड़े, पीछेछिपे ,दीन हीन ।
श्रम,उमंग,अंतहीन इंतजार ,
उठ गये होकर निराश मतिहीन।
बोझिल मन पर अश्रु छनकते
ग्रीष्म में जैसे धरा पे बूंद वर्षा
सोच की दिशा मुड़ी अचानक
भाग्यशाली से बने क्यूँ यूँ हीन ?
सोचता है ‘पाखी-मन’ अक्सर
क्या खोया और क्या पाया है ?
व्यथित वेदना के धरातल पर
ठहर क्षणिक भर को ,ले विश्राम
किया था क्या कभी कृष्ण ,राम ने
छल से ,कोमल हृदय पर प्रतिघात!!
एक आस लिए जागती रही आँखें
टकटकी लगाये,भेंट भावों की लिए।
क्यों न पा सकी स्थान देकर विश्वास ,
उथल-पुथल मन में,सुप्त चाहत लिए।
दिया सम्मान ,चाहा कुछ न बदले में ..
फिर कब ,क्यों कैसे बनी हतभागिनी।
@पाखी_मन