पाखण्ड जनित ”नारी वेदना”…
?? ”नारी की व्यथा” ??
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संवेगों का विष पीती है, आवेशों में नित्य बहे।
जीती है मर-मर के नारी, नित नैनों में नीर रहे।
कह पाएं जो व्यथा कथा को, उस क्षमता के शब्द नहीं।
भावशून्य-सी रहें सदा ही, खुशियाँ उसको लब्ध नहीं।
पुरुष प्रधान पुराने पापी, पापाचारी पाये हैं।
सामाजिक ढांचे को डसते, ये अनबूझे साये हैं।
नारी की गरिमा को लूटा , धर्मी ठेकेदारों ने।
डेरों पर सौदा कर डाला, कुछ वहशी हत्यारों ने।
राम-वृक्ष से बोझ धरा के, बाग जवाहर खा बैठे।
स्वारथ के मद अंधे होकर, कितनों को मरवा बैठे।
राम-रहीम बने सब दुश्मन, पापी नीच हराम हुए।
रामपाल से निर्मल होते, सब ही आशाराम हुए।
नारायण भी साथ लगाकर, बने स्वंयम्भू घूम रहे।
आँखों के अंधे उनके पग, पट्टी बांधे चूम रहे।
हुए अक्ल से पैदल देखो, भेड़ बने मिमियाते हैं।
अब्बा की जागीर समझते, दुनियां फूँक-जलाते हैं।
अरे अक्ल के अंधो देखो, आँखें खोल कुकर्मों को!
अब तो इनमें से पहचानो, क्रूर-कुटिल बेशर्मों को!
कामी-कपटी बाबाओं को, देखो परखो जांचो तुम।
रटे-रटाये तोते जैसे, हर्फ सदा मत बांचो तुम।
नारी की अस्मत को लूटें, नर-पिशाच बहुरूप धरे।
फिर भी जनता बलिहारी हो, उनकी जय-जयकार करे।
कुछ कुत्सित कामी कुविचारी, कूकर कुल को कुपथ करें।
भोले-भाले भीरु-भक्त भी, भयवश भौंकें भुगत मरें।
उच्च पदों पर भी दैहिक सुख, व्यभिचारी परिपाटी के।
पाप-पुण्य परिभाषित करते, हैं कपूत इस माटी के।
जिस भारत में आदिकाल से, चरित बनाये जाते हैं।
उसकी गरिमा को घुन बनकर, के ये कीड़े खाते हैं।
”धूर्त, फरेबी जालसाज बाबाओं की मत आश करो।”
”पाखण्डों का खंडन करके, इनका पर्दाफाश करो।”
‘हिन्द धरा के गुणी-सपूतो, ‘तेज’ न अपना व्यर्थ करो।’
”बनें विवेकानन्द सभी” यह, उत्सर्जित सामर्थ्य करो।
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?तेज मथुरा