पांचवी बेटी
पाँचवीं बेटी
प्यार याकि सम्मान मिला हो ,
मुझको याद नहीं है ।
हुई पाँचवीं बेटी मैं ,
यह मेरा दोष नहीं है ।
ध्वस्त हुआ मेरा जीवन जब ,
घर में आया भाई ।
बचे हुए मेरे बचपन की ,
मानो शामत आई ।
अच्छा भोजन ,अच्छे कपड़े ,
और खिलौने उसके ।
उसकी चर्चा , उसकी बातें ,
लाड – प्यार सब उसके ।
शाला भेजा गया उसे भी ,
बड़े ठाट थे उसके ।
घर की हर अच्छी चीजों पर ,
सारे हक थे उसके ।
उसके सारे खेल खिलौने ,
झाड़ू – पौंछा मेरे ।
उसके सारे सैर सपाटे ,
चौका – बर्तन मेरे ।
घोर तिरस्कृत और उपेक्षित ,
बचपन मेरा बीता ।
दबे पांव यौवन आया ,
उल्टी गागर सा रीता ।
चारों बड़ी बहन पहले ही,
घर से गईं भगाई थी ।
मुझसे कहते ब्याह हुआ है ,
उनकी हुई विदाई थी ।
आई अब मेरी भी बारी ,
बूढ़ा दूल्हा आया ।
मुझे जिबह करने को उसके,
संग था विदा करया।
आकर पता चला यह घर न,
सिर्फ कसाई – खाना था ।
वंश – वृद्धि की फिक्र लगी थी ,
औरत घर में लाना था ।
चार साल हल चला- चला कर ,
वह तो जैसे पस्त हुआ ।
उगा न अंकुर मेरे अंदर ,
उसका सूरज अस्त हुआ ।
विधवा और बांझ दोनों का,
बिल्ला मुझ पर लटक गया ।
रौरव – नरक सरीखे घर में ,
मुझको बेबस पटक गया ।
बचे हुए मर्दों ने मुझको ,
नौचा और खसोटा खूब ।
सब समाज ने ताने मारे ,
मरती क्यों न, जाकर डूब।
मर जाऊं , मैंने भी सोचा ,
मेरी अस्मत लुटी हुई ।
औरत नहीं वस्तु थी मैं तो ,
घरवालों से बिकी हुई ।
और एक दिन इक ग्राहक को ,
मुझ पर जरा दया आई ।
या उसकी आवश्यकता मुझको ,
उसके घर पर ले आई ।
मूल्य चुका कर उसने मेरा ,
मुझको घर पर लाया था ।
उसने सारी जरूरतों का ,
मुझ में ही हल पाया था ।
दो बूढ़े बीमार यहां थे ,
सेवा उन्हें जरूरी थी।
इस मकान को घर बनने को ,
औरत यहां जरूरी थी ।
वह औरत बनना इस घर में ,
तब मैंने स्वीकार किया ।
अपनी स्वतंत्रता के बदले ,
फिर बंधन स्वीकार किया ।
मेरे पत्थर दिल के अंदर ,
कुछ – कुछ नमी समाई थी ,
इस निर्वासित सी काया में ,
जीवन ने अंगड़ाई ली । …..
बात हुई वह बहुत पुरानी ,
मैं दादी , दो पोतों की ।
आंगन में किलोल करते उन ,
नन्हे बाल कपोतों की।
कहां बीत जाता सारा दिन ,
उनकी बाल – चिरौरी में ।
नहीं समझ आता मुझको कुछ,
फिरूँ खुशी से बौरी मैं ।
मेरे अपनों ने , समाज ने ,
विधवा ,बांझ कहा मुझको ।
चकले पर मुझ को बैठाया ,
बेच दिया था तब मुझको ।
किंतु भाग्य ने पलटा खाया ,
बनी सुहागन ,माता भी ।
मेरी गोदी बेटे खेले ,
खेल रहे हैं पोते भी ।
अब भी हैं , कितनी कुरीतियां ,
कितने बद् रिवाज़ फैले ।
ऊपर से उजले जो दिखते ,
उनके मन कितने मैले ।
इंदु पाराशर