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10 Jun 2021 · 1 min read

पहुंँचता हूंँ वहां पर भी जहांँ लश्कर नहीं आते।

एक ग़ज़ल बहुत दिनों के बाद।

मेरी वो जान ओ हमदम दिली दर पर नहीं आते।
जो आते हैं तो गुस्से में कभी हँसकर नहीं आते।

कि जिनके इश्क़ में मजनू हुआ शायर हुआ काफ़िर।
हुई मुद्दत मगर मिलने कभी दिलबर नहीं आते।

जो आड़े इश्क़ के आते हैं तू उनको भी समझा कर।
हमेशा प्यार के राहों में तो पत्थर नहीं आते।

निभाते इश्क़ को आगाज़ से जो थे क़यामत तक।
कभी ऐसे नई दुनियां में अब मंज़र नहीं आते।

मैं नाकाबिल हूंँ कुछ करने को लेकिन इल्म है हासिल।
पहुंँचता हूंँ वहां पर भी जहांँ लश्कर नहीं आते।

वो खाए क़ौल ओ कसमें निसार ए जांँ वतन पर है।
यही गैरत है साहब जी कभी दफ़्तर नहीं आते।

कि दहशत गर्द है जो सख्स उसको भाई मत कहना।
क़तल करने खुदा के नाम पर लश्कर नहीं आते।

हुआ हूंँ मस्करा “दीपक” जिन्हें हरपल हंसाने को।
वही कहते हैं न जाने क्यों अब जोकर नहीं आते।

©® दीपक झा रुद्रा

1 Like · 249 Views
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