पहाड़ की पगडंडी
‘पहाड़ की पगडंडी’
दिल पिघल जाएगा देखकर पहाड़ों के नूर को,
नशा हो जाएगा पीकर सौन्दर्य के सुरूर को।
चलो सजनी उस राह से; दिल बहुत कुछ कहने लगेगा।
पहाड़ की पगडंडी पर तुम्हारा नूर बहने लगेगा।।
सिखा जाएगी बहुत कुछ संकरी शांत राहें,
मुश्किलों को करेंगे पार डालकर बाहों में बाहें।
चलो सजनी उस राह से; वहाँ दिल पुराना दर्द सहने लगेगा।
पहाड़ की पगडंडी पर तुम्हारा नूर बहने लगेगा।।
वहाँ से जाते राहगीरों को हम गुज़रते देखेंगे,
कैसे करते होंगे वहाँ निर्वाह हम झेलकर देखेंगे।
चलो सजनी उस राह से; बिना संघर्ष जीवन अधूरा रहने लगेगा।
पहाड़ की पगडंडी पर तुम्हारा नूर बहने लगेगा।।
वहाँ फूलों दरख्तों से हम शहरी राहों का शिकवा करेंगे,
पोल खोलेंगे शहरी जीवन की मुश्किल राहों से न डरेंगे।
चलो सजनी ये खाब कर लेते पूरा; नहीं तो जीवन ढहने लगेगा।
पहाड़ की पगडंडी पर तुम्हारा नूर बहने लगेगा।।
जीवन की कठिन राहों को लाँघना सीख जाएँगे,
पहाड़ वासियों का बोझिल जीवन ज़माने को बताएँगे।
गर मुकर जाओगी तुम ‘भारती’ का दिल तकलीफ देने लगेगा।
पहाड़ की पगडंडी पर तुम्हारा नूर बहने लगेगा।।
रचनाकार –सुशील भारती, नित्थर, कुल्लू (हि.प्र.)