पहले जैसी बात नही
पहले जैसी बात नही,
अब नाम के रह गए रिश्ते-नाते,
अब रिश्तों में वो मिठास नही,
था हर रंग मौजूद रंगीन होली का,
अब रंगों में भी वो बात न रही,
थी रंगीन रोशनी दीवाली के दीयों की,
आज मिट्टी के दीयों की कुछ औकात न रही,
थे मज़बूत बंधन कच्चे धागों के भी,
अब सोने की राखी भी कुछ ख़ास न रही,
होता था हर पर्व उल्लासित, ख़ुशियों भरा,
अब तो दशहरे की जलेबी भी उदास रही,
सावन के झूले और शगुन पिटारे, सब भूले,
सावन की हर सौग़ात अब सौग़ात न रही,
दिखावे के सारे त्यौहार, स्वार्थ के सारे रिश्ते,
अब तो रिश्तों में भी कोई बात न रही…