पहचान
आज खुद को खुद से
रूबरू करने चली मैं ।
आज फिर एक बार अपनी
पहचान ढुंढने चली मैं |
दफन हो चले थे जो सपने
समय के गर्द मे कहीं
आज उन अवशेषों मे
प्राण फूँकने चली मैं |
आज खुद को खुद से
रूबरू करने चली मैं ।
थे जो कुछ अरमान मेरे
कुछ जीवन के लक्ष्य थे मेरे
जिसको रिश्तो के लिए
कुर्बानी
देकर मैं चली आई थी।
आज उन लक्ष्यों की खातिर
फिर संघर्ष करने चली मैं |
आज खुद को खुद से
रूबरू करने चली मैं ।
कभी बेटी कभी पत्नी
कभी बहू कभी माँ
इन सब रिश्तों में खो चुकी थी ।
अपनी जो भी मेरी पहचान।
आज उस पहचान को
फिर से जीवित करने चली मैं।
आज खुद को खुद से
रूबरू करने चली मैं ।
देखा था एक वक्त
अपने लिए मैंने जो सपना।
गुम सा गया था जो
बंद आँखो कहीं पर।
आज फिर उन सपनों
जगाने चली मैं |
आज खुद को खुद से
रूबरू करने चली मैं ।
वक्त के थपेंड़ो से लड़कर
टूट गए थे,
अरमाँ के पंख जो कभी
आज फिर उन पंखो को जोड़कर,
उड़ने के लिए तैयार हो चली मैं।
आज खुद को खुद से
रूबरू करने चली मैं ।
वक्त के ठोंकड़ों से ओझल सी
हो गई थी जो कुछ खुशियाँ
आज उन खुशियों को
फिर से पाने चली मैं |
आज खुद में ही खुद को
जीने की एहसास कराने
चली मैं।
~अनामिका