पहचान…
जाननेंवाले लोग
पहचानने लगे
तो बात कैसी?
बात तो तब है
जब
ना जाननेंवाले लोग
आपको पहचानने लगें…
जो लोग
कुल, जात,
पता-ठिकाना
पूछकर
जानकारियाँ बढ़ाते हैं
वो महज़
‘जानकार’ बनकर रह जाते हैं…
रिश्तेदारों के बाद
उन्हीं की बारी आती है
भरोसा नहीं जिन्हें
अपनी मेहनत पर
उन्हें लगता है
जानकारी काम आती है …
हाँ, पहचान
किसी परिचय की
मोहताज नहीं होती…
ठोकरें खानी पड़े
तो खाओ तुम
वक्त कैसा भी आए
ना घबराओ तुम
फिर देखना
एक ना एक दिन
मंजिल तुम्हारे कदमों की
कर्जदार होगी…
परिश्रम और हुनर
बस उसके साथी हैं
‘पहचान’
बनाना कुछ मुश्किल है
पर मुमकिन है
स्वर्ण को भी
कुंदन बनने से पूर्व
खुद को तपाना पड़ता है
अलग ‘पहचान’
बनाने के लिए ‘साहब’
‘हुनर’ को चमकाना पड़ता है…
-✍️ देवश्री पारीक ‘अर्पिता’