पसरी यों तनहाई है
गीत
मैं हूँ या फिर मेरी पागल पीड़ा की परछाई है ।
मेरे चारों ओर रात-दिन, पसरी यों तनहाई है ।।
दीवारों से बातें करता,सूना मन आहें भरता ।
लिखा तुम्हारा नाम मिटाता,दृग-कोरों में दिन ढलता।।
विरह व्यथा की कानों में नित,गूँज रही शहनाई है।
मैं हूँ या फिर मेरी पागल, पीड़ा की परछाई है ।।
तज कर सपने अपने मैंने, तुमको निज से मुक्त किया ।
झरती पुरवा-सी यादों को,अभ्यंतर से युक्त किया ।।
बाँध न पाया अंतर् ढाढ़स, ऐसी प्रीति पराई है ।
मैं हूँ या फिर मेरी पागल, पीड़ा की परछाई है ।।
अनमन-अनमन देखो आकर, संध्या बैठी आँगन में।
टूटे सारे सपने कुंठित, बरस रहे ज्यों सावन में।।
युग बदला फिर भी आँखों से,छलक रही रुसवाई है।
मैं हूँ या फिर मेरी पागल,पीड़ा की परछाई है ।।
घेर रहे यादों के बादल,फैलाकर बाँहें मंडित ।
सोती है सीने पर पीड़ा,शोणित लथपथ-सी कंपित।।
देखी नहीं कभी दुनिया ने,बढ़ी व्यथा-गहराई है।
मैं हूँ या फिर मेरी पागल, पीड़ा की परछाई है।।
डा. सुनीता सिंंह ‘सुधा’
वाराणसी ,©®