पश्चाताप
सृजक – डा. अरुण कुमार शास्त्री
विषय – ऋण
शीर्षक – पश्चाताप
विधा – छंद मुक्त तुकांत कविता
ऋण कर्ता रोता सदा ।
मुक्त कभी न होय ।।
मुक्त अगर हो जाए तो ।
ग्लानि से हिय ढोय ।।
ज्ञान, मान और शान का ।
ऋण ही शोषक होय ।।
शीश उठा चल न सके ।
जग में दंडित होय ।।
ऋण का कीड़ा मानिए ।
देह दिमाग को खाए ।।
घुन कनक को चाटता ।
ऐसा घुसता जाए रे भैय्या ।।
ऐसा घुसता जाए
मानुष राखे धीर जो ।
ऋण से बच वो पाए ।।
अपनी चादर देख के ।
तेते पॉव फैलाए रे भैय्या ।।
तेते पॉव फैलाए
संतोषी संसार में ।
रहता सुख से जान ।।
देख पराई चूपड़ी ।
देता तनिक न ध्यान रे भैय्या ।।
देता तनिक न ध्यान