पश्चाताप !
।। ॐ ।।
(यह कविता आठ जुलाई सन् दो हज़ार पन्द्रह को लिखी गई)
* पश्चाताप ! *
कोरी जाँच-पड़ताल नहीं
न मनभाती बात ।
ऐसा – ऐसा हो चुका
उसे कहें इतिहास ।।
ताज बनाया नशेड़ी – कामी ने
जिसके मन आदर न सत्कार ।
पुत्री का पापी नारकी
बाड़े में औरतें पाँच हज़ार ।।
सीकरी नगर बसाने वाला
निरक्षर निपट गँवार ।
अनूप झील का भेद न जाना
झूठों का सरदार ।।
दो दिन ठहरा नरपिशाच
बस गया औरंगाबाद ।
कर्णावती तो झूठ था
सच्चा अहमदाबाद ।।
लाहौर से कोलकाता जोड़ने वाला
दो दिन चैन से सोया न ।
इक – दूजे के बनाए मकबरे
मरने पर कोई रोया न ।।
भिश्ती चिश्ती भंगी औलिया
सब की कब्रें आलीशान ।
ढूँढे-से मिलते नहीं
सुँदर उनके मकान ।।
भूखे – नंगे बसते थे हम
कुछ नहीं था हमारे पास ।
गज़नी ग़ौरी अब्दाली जैसे
आते थे छीलने घास ।।
जब तक बल और वीर्य था
सिकंदर जैसे पिट गए ।
बुद्धम शरणम् गच्छामि कूकते
राजा दाहिर कट गए ।।
ज़ंजीरों में कट गए
इक हज़ार दो सौ पैंतीस साल ।
फिर छाती पर चढ़ बैठे
दुर्जनों के दत्तक लाल ।।
भोपाल को मरघट करने वाला
हँस रहा हिनहिना रहा ।
नाम बदलकर आज भी
बेशर्मी से दनदना रहा ।।
इक मैगी छूटी क्या हुआ
अपनी करनी पर इतरा रहा ।
आज भी अपने देश को
बड़े चाव से नेस्ले खा रहा ।।
रोज़ी-रोटी छीनने वाले
खुश हैं साथी पर, कुलघाती पर ।
मस्तक नाम लिखाया उनका
पैरों पर और छाती पर ।।
लुटेरे फिर से लौट रहे हैं
हाड़-माँस अब नोंचेंगे ।
फरियाद करें न रो ही पावें
ऐसा कसके दबोचेंगे ।।
मिलकर अपने दत्तक पुत्रों से
क्या सुँदर जाल बुना है ।
हाय री किस्मत ! इन जयचंदों को
हमने आप चुना है ।।
२७-३-२०१६ –वेदप्रकाश लाम्बा ९४६६०-१७३१२