पश्चातापों की वेदी पर
गीत
पश्चातापों की वेदी पर
लेकर अपने पाप बढ़े
जब भी तोली, कीमत अपनी
मोल हमारे आप बढ़े
ली चांद ने अंगड़ाई तो
सूरज ने तरुणाई ली
घर अपना ही भूले तारे
अवनी ने तन्हाई ली
डोल गई किस्मत भी फिर से
रह रह कर फिर जाप बढ़े
मृग तृष्णा के पट जब खोले
दुल्हन सी शरमाई वो
और समय ने भी फिर देखा
उड़ती सी परछाई वो
खुले लाज के गहने सारे
रह रह कर फिर ताप बढ़े।।
कुछ बनने की खातिर हमने
कैसा जग संजाल बुना
डूब गई जो बीच समुन्दर
क्या कश्ती, तूफान बना
हम नाविक हैं, मन के सागर
सहते सहते थाप बढ़े।।
सूर्यकांत