पल प्रतीक्षा के
पल प्रतीक्षा के प्रिये
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मैं ,मन अपना बहलाता हूँ
ये ,पल प्रतीक्षा के -प्रिये,
मानों…..,
पल -पल बीत रहें हों जैसे,
दिवस ढ़ल गया
उतरी –साँझ,
देख देख कर,
मैं ,मन अपना बहलाता हूँ |
खिड़की के शीशे से,
छन…छन कर आती हुई
चंद्र प्रभा के संग -प्रिये,
मैं ,मन अपना बहलाता हूँ |
पल -पल बीत रहें हों ये पल,
मानों , कल की बात हो जैसे
हम –तुम दोनों सैर कर रहें
दूर क्षितिज के पार गगन के,
तंद्रा टूटी…. सपने बिखरे
यादों के उस भंवर जाल के,
जिनसे…..,
मैं ,मन अपना बहलाता था,
मैं ,मन अपना बहलाता था ||
शशि कांत श्रीवास्तव
डेराबस्सी मोहाली, पंजाब
©स्वरचित मौलिक रचना
06-02-2024