पलायन क्यू
जीवन से पलायन क्या करना,
संघर्ष है यह तो अपना ही।।
कभी धूप दुखो की आती है।
कभी फैली छाँव सुखो की भी।।
कभी जीवन उपवन सा मधुरं ।
कभी काली बदरि छायी है ।
जीवन से पलानय्ं क्या करना,,,,,,,,
समझू मैं भी अपने ‘मैं ‘ को ,
कुछ तुम भी तो खुद को जानो ।
कुछ राहे मेरी भी सही नही,
कुछ ऐसा तुम भी तो मानो
जीवन मे पलायन क्यू करना,
संघर्ष है यह तो अपना ही।।
बहे रक्त मेरा यदि फिर से मैं तत्पर हो जाऊंगा।
गिर जाऊ अगर तो क्या होगा
फिर से मै उठ जाऊंगा
माना सागर भी गहरा है
मैं तैर के ऊपर आऊँगा
मै तैर के उपर तो आऊँगा।
है जीवन की रीत यही
सब तुम मे ही दोष निकालेंगे।
बारी आई जब स्वयं की तो
सब हरीशचंद्र बन जायेंगे।।
फिर भी जो मेरा कर्म रहा
वह तो पुर्ण कर जाऊंगा।
गिरता हू मैं यदा कदा
लेकिन फिर से उठ जाऊंगा।
जीवन से पलायन क्या करना,
संघर्ष है यह तो अपना ही।
संघर्ष है यह तो अपना ही।।
मुख से जिनके सुधा बहे,
देखो नियत उनकी काली है ।
भाव रहा उन्नत सदा,कहने को फिर भी हम हाली है ।।
बैठे आसन पर लोग वही, जो नीचा तुम्हे देखायेंगे।
स्वयं कहलायेंगे पुरुषोत्तम,
और अधम तुम्हे बतायेंगे।।
जीवन से पलायन क्या करना.••••••••••