पर वो कहाॅं सोते हैं
अमंगल के भय मात्र से ही
उन्हें नींद कहाँ कभी आती है
प्रहरी बन कर चौकसी करते
आँखें भी कुम्हला जाती है
उठे कसक दिल में भी तो
एक वीर कहाँ कभी रोते हैं
निर्भीक होकर देश में सब सोए
पर वो स्वयं कहाँ सोते हैं
आँच ना आये माँ के आँचल पर
दिन रात ये खडे़ रहते हैं
बलिदान शीश हीं क्यों न हो
अपने कर्त्तव्य पर डटे रहते हैं
शाँति रहे चारों ओर हमेशा
यही सोच सीमा पर होते हैं
निर्भीक होकर देश में सब सोए
पर वो स्वयं कहाँ सोते हैं
देह में सिहरन पैदा करती
ठिठुरती ठंड की स्याही रात
जठराग्नि बढ़ाती भूख की ज्वाला
और पैरों में छाले की सौगात
कुछ भी हो फिर भी ये मुस्कुराते हुए
देश की रक्षा का भार कंधों पर ढ़ोते हैं
निर्भीक होकर देश में सब सोये
पर वो स्वयं कहाँ सोते हैं