पापा की गुड़िया
पापा की गुड़िया होती है बड़ी अनमोल,
दुनिया के सारे खिलौने एक तरफ, और,
पापा की गुड़िया एक तरफ,
पापा की गुड़िया अपनी मासूमियत में,
न जाने क्या क्या पूछती है अपने पापा से,
आश्चर्य से भर देती प्रश्न पूछकर।
……………..
चंदा मामा क्यूं हैं, चंदा चाचा क्यूं नहीं,
चंदा मामा इतने दूर क्यूं रहते हैं,
मैं चांदी की कटोरी में दूध नहीं पियूंगी,
न जाने एक सांस में क्या-क्या पूछ लेती है।
…………
पापा की गुड़िया पापा सदा रहती है पापा की दुलारी,
पापा के कंधे पर बैठकर करती है मीलों की सवारी,
और एक दिन पढ़-लिखकर,
पापा की अभिलाषा करती है पूरी।
……………
पापा की गुड़िया तो उनके घर के आंगन की रौनक है,
रूठना-मनाना, हंसना-रोना चलता रहता है नित,
फिर एक दिन एक राजकुमार आकर ले जाता है,
ब्याहकर अपने साथ और,
पापा के पास रह जाती है संदूक में पुरानी यादें,
जिन्हें रखता है वह अपनी मंजूषा में संभालकर,
यही उस गुड़िया की यादें होती हैं,
जो पापा को हमेशा गुड़िया की याद दिलाती रहती l हैं।
……………………
किंतु पापा की गुड़िया हमेशा गुड़िया ही रहती है,
चाहे वह मां,बहिन, पत्नी, बहू, भाभी,
जैसे असंख्य रिश्तों में बंध गई हो।
पापा उसके लिए वही बिस्कुट चाकलेट लाते हैं,
जो बचपन में दिया करते थे।
………..
सचमुच पापा की यह गुड़िया अनमोल है,
बचपन कब जिम्मेदारी में बदल जाती है,
यह उस गुड़िया को भी ध्यान नहीं होता है।
……..
घोषणा – उक्त रचना मौलिक अप्रकाशित एवं स्वरचित है। यह रचना पहले फेसबुक पेज या व्हाट्स एप ग्रुप पर प्रकाशित नहीं हुई है।
डॉ प्रवीण ठाकुर
भाषा अधिकारी
निगमित निकाय भारत सरकार
शिमला हिमाचल प्रदेश।