परिवर्तन
हमने वक्त को बदलते देखा है
ममत्व के अर्थ को अर्थहीन
विश्वास को शीशे की तरह
चकनाचूर होते देखा है।
समय की विडम्बना कहे या
कहें खेल किस्मत का, हमनें तो
अपनो को अपनो से ही भागते देखा है।
हम तो जीते थे , औरों की खुशी के लिए
वर्तमान पीढ़ी को तो सिर्फ अपनी
ही जिन्दगी जीते देखा है।
माँ – बाप की एक आवाज पर दौड़े आते थे सब
आज उसी आवाज को महफिल के
शोर मे सिसकते देखा है।
संस्कारो की कमी कहे या प्रभाव
पाश्चात्य संस्कृतिका अधिकतर
युवाओं को हर राह पर
विचलित , होते ही देखा है।
डॉ. कामिनी खुराना (एम.एस., ऑब्स एंड गायनी)