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19 Jul 2019 · 1 min read

परिभाषित रिश्ते

सब कुछ तो मिला
जो चाहा था
फिर क्यूं बिछता है मन
ओंस की बूंदों सा
एक नई सुबह की चाहत मे

दिलों मे गर्मजोशी कहीं
गुम सी हुई जाती है
रोजमर्रा की गर्द मे
और करीब आने से पहले की
उन आँखों मे लहराती वो शाखें
अब उपेक्षित सी पड़ी हैं

अब बस एक सर्द एहसास
कि बांटने को
कुछ भी तो नही है
सिवा एक फर्ज के
जो निभाये जाते हैं
खुद को नकार कर

अपनी परिधि से
जुड़े रहने का
यही है मोल
जो चुकता रहता है
हर पल

पर मन इससे भी परे तक
जाया करता है
जो अब तक न बंट सका
उसे बांटने की आस मे
एक मरीचिका की तलाश
या प्रतिपल नवीनता की प्यास
कौन जाने?

हाँ, बंध तो जाते हैं
पालतू से
पर जुड़ कर भी
टूटे से
अपनी अतृप्त आशाओं
के बोझ तले

शायद यही नियति हो
परिभाषित रिश्तों की

Language: Hindi
2 Likes · 397 Views
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