परिभाषित रिश्ते
सब कुछ तो मिला
जो चाहा था
फिर क्यूं बिछता है मन
ओंस की बूंदों सा
एक नई सुबह की चाहत मे
दिलों मे गर्मजोशी कहीं
गुम सी हुई जाती है
रोजमर्रा की गर्द मे
और करीब आने से पहले की
उन आँखों मे लहराती वो शाखें
अब उपेक्षित सी पड़ी हैं
अब बस एक सर्द एहसास
कि बांटने को
कुछ भी तो नही है
सिवा एक फर्ज के
जो निभाये जाते हैं
खुद को नकार कर
अपनी परिधि से
जुड़े रहने का
यही है मोल
जो चुकता रहता है
हर पल
पर मन इससे भी परे तक
जाया करता है
जो अब तक न बंट सका
उसे बांटने की आस मे
एक मरीचिका की तलाश
या प्रतिपल नवीनता की प्यास
कौन जाने?
हाँ, बंध तो जाते हैं
पालतू से
पर जुड़ कर भी
टूटे से
अपनी अतृप्त आशाओं
के बोझ तले
शायद यही नियति हो
परिभाषित रिश्तों की