परिभाषा का धर्म
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धर्म सहिष्णुता का स्निग्ध-चादर ओढ़े हुए असहिष्णु लोग हैं।
लोगों का सहज सुस्वभाव नहीं यह उनका अवमूल्यित-रोग है।
मूल्य वहाँ नहीं जाते हैं गढ़े जहाँ वस्तुएँ होती हैं उत्पादित।
वस्तु गढ़नेवालों के पसीने मूल्य गढ़नेवालों से हैं अपमानित।
मूल्य में असीमित व्यर्थ वाणिज्यिक नफा होते हैं समाहित।
वैसे ही विवेक से उत्पन्न विचार नफा-नुकसान से हैं प्रेरित।
धर्म की कांड-क्रियाएँ सार्थकता के प्रश्न-चिन्हों से सर्वदा घिरी।
इस आधार पर शोषण,ह्त्या,युद्ध,बलात्कार इसकी हो किरकिरी।
ऐसे धर्मों की परिणति समाज के कुध्रुवीकरण से होता श्रापित।
अफसोस,ऐसे ही धर्म होते रहते हैं क्यों मनुष्य के पुरोहित?
धर्म दरअसल मानवीय विचारों के संग्रह का ही है संस्करण।
प्रारंभ होता तो है किन्तु,रह जाता है पोथी का एक संस्मरण।
जन्म के पूर्व स्त्री पुरुष का दैहिक एकीकरण नियत,सत्य है।
धर्म कृत्रिम है क्योंकि, विधर्मियों के संयोग से भी उद्भव है।
मृत्यु को परिभाषित करता हुआ अंगद का धर्म आवेग ही है।
रावण से प्रतिवाद करता हुआ अंगद का धर्म तो संवेग ही है।
धर्म सर्वदा अधर्म के सामने नहीं उसकी परिभाषा के है विरुद्ध।
जिस सीता हेतु लंका का विनाश किया त्यागना होता निषिद्ध!
धर्म सवालों का जंगल है आदमी अकेला अपने को खोजता है।
नहीं मिलता है उत्तर,आदमीयत को उतारता है उसे कोसता है।
धर्म आदमी से बड़ा नहीं हो अथवा होंगे सवालों के ही जंगल।
आदमी धर्म से बड़ा नहीं बनें तो होगा उनका ही बड़ा मंगल।
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