परित्यक्त स्त्री
अपनाकर लहुलुहान कर गया मुझे
कुछ नहीं तो ठुकरा गया मुझे ।
कोई नहीं तू (व्यक्ति ) चूम रहा है।
कहाँ जी पाओगे , तुम भी खुशी जिन्दगी
कहती है मेरी आहें I
जिस अपनेपन में गुजारा होता।
वही जिदंगी बेजार कर गया।
बैठी हूँ ( वक्त में ) जलील बनकर । काश सम्मान हो पाता
अपनी ही निजता से,
तो बनती न उपहास । लज्जित मूल्य , अपने ह्रास से I
प्रेम इजहार ,
बदले हुए क्षण में ।
हर पहलू के रंग में , घायल जीवन I
उन्होंने (पति ) सिर्फ देखा, अपना स्वार्थ
यही परित्यक्त स्त्री का इतिहास I
अन्यथा ना होता ये अत्याचार |
हरेक मंजिल का सफर होता है।
परित्यक्त का सिर्फ राह गुजर होता है।
पड़ाव के इस ठहराव में ,
परित्यक्त हिस्से का संसार |
विवशता में बिखर गया है जो आज भी
जिस दिन ठुकरा कर गया मुझे ।
सामान्य जीवन के लिए ।
जिंदगी उसी दिन से मोहताज हो गयी।
परित्यक्ता सक्षम होना हैं आज ।
अपमानों का बोझ उतार फेंक ,
सम्मानाओं का बोझ उतार फेंक ,
अपने यथार्थ में , एक दिन आयेगा । जब तुम गर्व करोगी ।
अपने पर, अपने शाश्व त में और जो कुछ रह जायेगा I
वो है दीदार , अपने (यार) व्यक्तित्व का ,
इस गर्व पर गर्व करके देख।
कुछ देख पाई है,
अपने को (परिव्यक्त स्त्री ) देख । _ डॉ. सीमा कुमारी , बिहार (भागलपुर )