परिचित
******** परिचय ********
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हाड मांस का हूँ एक टुकड़ा,
मानुष रूप का सुंदर मुखड़ा।
मानव – जाति ही पहचान मेरी,
इंसानियत भरा दिल धड़का।
मानवतावादी ही रहा धर्म मेरा,
घर-घर जाऊं हरूँ हर दुखड़ा।
माता-पिता हैं प्रथम गुरू मेरे,
प्रेम सानिध्य से भारी पलड़ा।
ऊँच-नीच का मन में भेद नहीं,
बेशक हूँ मैं स्वार्थों में जकड़ा।
भारत माँ का लाल बन जन्मा,
यही मात्र परिचय बस पकड़ा।
गांव-शहर गली कूचे सब मेरे,
कभी नहीं हूँ बात पर अकड़ा।
पंथ-संत ने जग पथ है बदला,
धर्म-जाति-पाति ने ही रगड़ा।
हिंदुस्तानी रंग चढ़ा मनसीरत,
नहीं किया कभी कोई झगड़ा।
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सुखविंद्र सिंह मनसीरत
खेड़ी राओ वाली (कैथल)